महाविद्यालय प्रबन्धसमिति की दृष्टि में शिक्षा

शिक्षा से आत्म विश्वास आता है और आत्म विश्वास से अन्तर्निहित ब्रम्हभाव जाग उठता है । निषेधात्मक शिक्षा अथवा कोई भी प्रशिक्षण, जो निषेध पर आधारित हो, मृत्यु से भी बदतर है ।
यदि शिक्षा का अर्थ, जानकारी ही होता, तब तो पुस्तकालय संसार में बड़े संत हो जाते और विश्वकोष महान ऋषि बन जाते ।
विदेशी भाषा में दूसरे के विचारों को रटकर, अपने मस्तिष्क में उन्हें ठूंसकर और विश्वविद्यालयों की कुछ प्रवित्तियाँ प्राप्त करके, तुम अपने को शिक्षित समझते हो । क्या यही शिक्षा है ? तुम्हारी शिक्षा का उद्देश्य क्या है ? या तो मुंशीगीरी मिलाना, या वकील हो जाना या अधिक से अधिक डिप्टी मजिस्ट्रेट बन जाना हो मुंशीगीरी का ही दूसरा रूप है- बस यही न इससे तुमको या देश को क्या लाभ होगा । आँखे खोलकर देखो, जो भरतखण्ड अन्न का अक्षय भण्डार रहा है, आज वहीं उसी अन्न के लिये कैसी करुण पुकार उठ रही है । क्या तुम्हारी शिक्षा इस अभाव की पूर्ति करेगी ? वह शिक्षा जो जन समुदाय को जीवन - संग्राम के उपयुक्त नहीं बनाती, जो उनकी चरित्र्य शक्ति का विकास ही नहीं करती, जो उनमें भूल-दया का भाव और सिंह का साहस पैदा नहीं करती, क्या उसे भी हम 'शिक्षा' का नाम दे सकते है? हमें तो ऐसी शिक्षा चहिए, जिसमे चरित्र बने, मानसिक वीर्य बढ़े, बुद्धि का विकास हो और जिसमें मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सके ।